गति (motion) |
गति (motion)
अदिश राशि (scalar quantity ): वैसी भौतिक राशि, जिनमें केवल परिमाण होता है. दिशा नहीं, उसे अदिश राशि कहा जाता है: जैसे - द्रव्यमान, चाल , आयतन, कार्य , समय, ऊर्जा आदि.
नोट: विद्युत धारा (current), ताप (temprature), दाब (pressure) ये सभी अदिश राशियां हैं.
सदिश राशि (vector quantity): वैसी भौतिक राशि जिनमें परिमाण के साथ-साथ दिशा भी रहती है और जो योग के निश्चित नियमों के अनुसार जोड़ी जाती हैं, उन्हें संदिश राशि कहते हैं: जैसे- वेग, विस्थपान, बल, त्वरण आदि.
दूरी (distance): किसी दिए गए समयान्तराल में वस्तु द्वारा तय किए गए मार्ग की लंबाई को दूरी कहते हैं. यह एक अदिश राशि है. यह सदैव धनात्मक (+ve) होती हैं.
विस्थापन (displacement): एक निश्चित दिशा में दो बिन्दुओं के बीच की लंबवत दूरी को विस्थापित कहते है. यह सदिश राशि है. इसका S.I. मात्रक मीटर है. विस्थापन धनात्मक, ऋणात्मक और शून्य कुछ भी हो सकता है.
चाल (speed): किसी वस्तु के विस्थापन की दर को चाल कहते हैं. अथार्त चाल = दूरी / समय यह एक अदिश राशि है. इसका S.I. मात्रक मी./से. है.
वेग (velocity ): किसी वस्तु के विस्थापन की दर को या एक निश्चित दिशा में प्रति सेकंड वस्तु द्वारा तय की दूरी को वेग कहते हैं. यह एक सदिश राशि है. इसका S.I. मात्रक मी./से. है.
त्वरण (acceleration): किसी वस्तु के वेग में परिवर्तन की दर को त्वरण कहते हैं. इसका S.I. मात्रक मी/से^ 2 है. यदि समय के साथ वस्तु का वेग घटता है तो त्वरण ऋणात्मक होता है, जिसे मंदन (retardation ) कहते हैं.
वृत्तीय गति (circular motion ) - जब कोई वस्तु किसी वृताकार मार्ग पर गति करती है, तो उसकी गति को वृत्तीय गति कहते हैं. यदि वह एक समान चाल से गति करती है तो उसकी गति को एक समान वृत्तीय गति कहते हैं.
समरूप वृत्तीय गति एक त्वरित गति होती है क्योंकि वेग की दिशा प्रत्येक बिंदु बदल जाती है.
कोणीय वेग (circular and motion) वृताकार मार्ग पर गतिशील कण को वृत के केंद्र से मिलाने वाली रेखा एक सेकंड में जितने कोण से घूम जाती है, उसे उस कण का कोणीय वेग कहते हैं. इसे अकसर ω (ओमेगा) से प्रकट किया जाता हैं. यानी कि ω = Ѳ / t . यदि कण 1 सेकंड में n चक्कर लगाता हैं तो, ω = 2π n.
(क्योंकि 1 चक्कर में कण 2π (360 डिग्री) रेडियन से घूम जाती है) अब यदि वृताकार मार्ग की त्रिज्या r है और कण 1 सेकंड में n चक्कर लगाता है तो उसके द्वारा एक सेकंड में चली गई दूरी = वृत्त की परिधि x n = 2 πrn, यही उसकी रेखीय चाल (linear speed) होगी.
यानी कि v = 2 πrn
v = 2π n x r = ω x r ( ω =2 π n )
रेखीय चाल = कोणीय चाल x त्रिज्या
न्यूटन का गति -नियम (newton 's laws of motion ): भौतिकी के पिता न्यूटन ने सन 1687 ई० में अपनी किताब "प्रिन्सिपिया" में गति के पहले नियम को प्रतिपादित किया था.
न्यूटन का पहला गति-नियम (newton's first law of motion ): यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहेगी या यदि वह एक समान चाल से सीधी रेखा में चल रही है, तो वैसी हे चलती रहेगी, जब तक उस पर कोई बाहरी बल लगाकर उसकी वर्तमान अवस्था में परिवर्तन न किया जाए.
प्रथम नियम को गैलिलियो का नियम या जड़त्व का नियम भी कहते हैं.
बाह्य बल के आभाव में किसी वस्तु की अपनी विरामावस्था या समान गति की अवस्था को बनाए रखने की प्रवत्ति को जड़त्व कहते हैं.
प्रथम नियम से बल की परिभाषा मिलती है.
बल की परिभाषा: बल वह बाह्य कारक है जो किसी वास्तु की प्रारम्भिक अवस्था में परिवर्तन करता है या परिवर्तन करने की चेष्टा करता है. बल एक सदिश राशि है. इसका S.I. मात्रक न्यूटन है.
जड़त्व के कुछ उदाहरण: (i) ठहरी हुई मोटर या रेलगाड़ी के अचानक चल पड़ने पर उसमे बैठे यात्री पीछे की ओर झुक जाते हैं.
(ii) चलती हुई मोटर कार के अचानक रुकने पर उसमें बैठे यात्री आगे की ओर झुक जाते हैं.
(iii) कंबल को हाथ से पकड़ कर डंडे से पीटने पर धूल के कण झड़कर गिर पड़ते हैं.
संवेग: किसी वस्तु के द्रव्यमान तथा वेग के गुणनफल को उस वस्तु का संवेग कहते हैं. अथार्त् संवेग = वेग x द्रव्यमान
यह एक सदिश राशि है. इसका S.I. मात्रक किग्राम x मी./से. है.
न्यूटन का द्वितीय गति नियम ( newton's second law of motion): किसी वस्तु के संवेग में परिवर्तन की दर उस वस्तु पर आरोपित बल के समानुपाती होती है. तथा संवेग परिवर्तन की दिशा में होता हैं अब यदि आरोपित बल F, बल की दिशा में उत्पन्न त्वरण a एवं वस्तु का द्रव्यमान m हो, तो न्यूटन के गति के दूसरे नियम से f = ma यानी कि न्यूटन के दूसरे नियम दे बल का व्यंजक प्राप्त होता है.
नोट: प्रथम नियम दूसरे नियम का ही अंग हैं.
न्यूटन का तृतीय गति नियम (newton's third law of motion): प्रत्येक क्रिया के बराबर, परन्तु विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है. उदाहरण:
(i) बंदूक से गोली चलाने पर, चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगना
(ii): नाव से किनारे पर कूदने पर पीछे की ओर हट जाना
(iii): रॉकेट को उड़ाने में.
संवेग संरक्षण का सिद्धांत: यदि कणों के किसी समूह या निकाय पर कोई बाह्य बल नहीं लग रहा हो, तो उस निकाय का कुछ संवेग नियत रहता है. यानी कि टक्कर के पहले और बाद का संवेग बराबर होता है.
आवेग (impulse): जब कोई बड़ा बल किसी वस्तु पर थोड़े समय के लिए कार्य करता है, तो बल तथा समय अंतराल के गुणनफल को उस बल का आवेग कहते हैं.
आवेग = बल x समय अंतराल = संवेग में परिवर्तन
आवेग एक सदिश राशि है , जिसका मात्रक न्यूटन सेकंड (Ns) है, तथा इसकी दिशा वही होती है, जो बल की होती है.
अभिकेंद्रीय बल (centripetal force): जब कोई वस्तु किसी वृत्ताकार मार्ग पर चलती है, तो उस पर एक बल वृत्त के केंद्र की ओर कार्य करता है. इस बल को अभिकेंद्रीय बल कहते हैं. इस बल के अभाव में वस्तु वृत्ताकार मार्ग पर नही चल सकती है. यदि कोई m द्रव्यमान का पिंड v चाल से r त्रिज्या के वृत्तीय मार्ग पर चल है, तो उस पर कार्यकारी वृत्त के केंद्र की ओर आवश्यक अभिकेंद्रीय बल f = m v^2/ r होता है.
अपकेंद्रीय बल (centrifugal force): अजड़त्वीय फ्रेम (non -inertial frame) में न्यूटन के नियमों को लागू करने के लिए कुछ एसे बलों की कल्पना करनी होती है, जिन्हें परिवेश में किसी पिंड से संबंधित नही किया जा सकता. ये बल छद्म बल या जड़त्वीय बल कहलाते हैं. अपकेंद्रीय बल एक ऐसा ही जड़त्वीय बल या छद्म बल है. इसकी दिशा अभिकेंद्री बल के विपरीत दिशा में होती है. कपडा सूखाने की मशीन, दूध से मक्खन निकालने की मशीन आदि अपकेंद्रीय बल के सिद्धांत पर कार्य करती हैं.
नोट: वृत्तीय पथ पर गतिमान वस्तु पर कार्य करने वाले अभिकेंद्रीय बल की प्रतिक्रिया होती है, जैसे "मौत के कुएं " में कुएं की दीवार पर मोटर साइकिल अंदर की ओर क्रिया बल लगाती है, जबकि इसका प्रतिक्रिया बल मोटर साइकिल द्वारा कुएं की दीवार पर बाहर की ओर कार्य करता हैं. कभी-कभी बाहर की ओर कार्य करने वाले इस प्रतिक्रिया बल को भ्रमवश अपकेंद्रीय बल कह दिया जाता है, जो कि बिल्कुल गलत है.
बल-आघूर्ण (moment of force): बल द्वारा पिंड को एक अक्ष के परितः घुमाने की प्रवत्ति को बल-आघूर्ण कहते हैं. किसी अक्ष के परितः एक बल का बल-आघूर्ण उस बल के परिमाण तथा अक्ष से बल की क्रिया रेखा के बीच की लंबवत दूरी के गुणनफल के बराबर होता है. [यानी कि बल-आघूर्ण (T ) = बल x आघूर्ण भुजा] यह एक सदिश राशि है. इसका मात्रक न्यूटन मी. है.
सरल मशीन (simple machines): यह बल आघूर्ण बल के सिद्धांत पर कार्य करती है. सरल मशीन एक ऐसे युक्ति है, जिसमें किसी सुविधाजनक बिंदु पर बल लगाकर, किसी अन्य बिंदु पर रखे हुए भार को उठाया जाता है. जैसे उत्तोलक, घिरनी, आनत तल, स्क्रू जैक आदि.
उत्तोलक (lever): उत्तोलक एक सीधी या टेढ़ी छड़ होती है, जो किसी निश्चित बिंदु के चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है. उत्तोलक में 3 बिंदु होते हैं:
(i) आलंब (fulcrum): जिस निश्चित बिंदु के चारो ओर उत्तोलक की छड़ स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है उसे आलंब कहते हैं.
(ii) आयास (effort): उत्तोलक को उपयोग में लाने के लिए उस पर जो बल लगाया जाता है, उसे आयास कहते हैं.
(iii) भार (load): उत्तोलक के द्वारा जो बोझ उठाया जाता हैं, अथवा रुकावट हटाई जाती है, उसे भार कहते हैं.
उत्तोलक के प्रकार: उत्तोलक 3 प्रकार के होते हैं:
(i) प्रथम श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F, आयास E तथा भार W के बीच में स्थित होता हैं. इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ 1 से अधिक, 1 के बराबर तथा 1 से कम भी हो सकता है. इसके उदाहरण है: कैंची, पिलाश, शीशा, झूला, साइकिल का ब्रेक, हैंड पंप आदि.
(ii) द्वितीय श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F तथा आयाम E के बीच भार w होता है. इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ सदैव एक से अधिक होता है. इसके उदाहरण सरौता, नींबू निचोड़ने की मशीन, एक पहिए की कूड़ा ढोने की गाड़ी आदि.
(iii) तृतींय श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F भार W के बीच में आयास E होता है. उदाहरण चिमटा, किसान का हल, मनुष्य का हाथ.
गुरुत्वकेंद्र (center of gravity): किसी वस्तु का गुरुत्व केंद्र, वह बिंदु है जहां वस्तु का समस्त भार कार्य करता है. अतः गुरुत्वकेंद्र पर वस्तु के भार के बराबर उपरिमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित करते हैं, चाहे वह जिस स्थिति में रखी जाएं. वस्तु का भार गुरत्वकेंद्र से ठीक नीचे की ओर कार्य करता है. अत: गुरुत्व केंद्र पर वस्तु के भार के बराबर ऊपरीमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित रख सकते हैं.
संतुलन के प्रकार: संतुलन 3 प्रकार के होते हैं- स्थायी, अस्थायी तथा उदासीन:
(i) स्थाई संतुलन (stable equilibrium): यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति से थोड़ा विस्थापित किया जाए और बल हटाते ही पुनः वह पूर्व स्थिति में आ जाए तो ऐसे संतुलन को स्थाई संतुलन कहते हैं.
(ii) अस्थाई संतुलन (unstable equilibrium): यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति से थोड़ा सा विस्थापित करके छोड़ने पर वह संतुलन की अवस्था में न आए तो ऐसे संतुलन को अस्थाई संतुलन कहते हैं.
(iii) उदासीन संतुलन (neutral equilibrium): यदि वस्तु को संतुलन की स्थिति से थोड़ा सा विस्थापित करने पर उसका गुरुत्वकेंद्र (G) उसी ऊंचाई पर बना रहता हैं तथा छोड़ देने पर वस्तु अपनी नई स्थिति में संतुलित हो जाती है, तो उसका संतुलन उदसीन कहलाता है.
स्थायी संतुलन की शर्तें: किसी वस्तु के स्थाई संतुलन के लिए दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है:
(i) वस्तु का गुरुत्व केंद्र अधिकाधिक नीचे होना चाहिए.
(ii) गुरुत्व केंद्र से होकर जाने वाली ऊर्ध्वाधर रेखा वस्तु के आधार से गुजरनी चाहिए.
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